Domestic Debt: भारत लंबे समय तक एक ऐसा देश रहा है जहां लोग अपनी आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भविष्य के लिए बचाते थे। हालाँकि, अब यह तस्वीर बदल रही है। हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी आंकड़ों से पता चला है कि देश की शुद्ध घरेलू बचत 47 वर्षों के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गई है, और घरेलु लोन बढ़ा है। यह मुद्दा अब बहुत महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि इसका सीधा असर हमारे आर्थिक स्थिरता और व्यक्तिगत वित्तीय स्वास्थ्य पर पड़ता है। इस लेख में, हम विस्तार से समझेंगे कि भारत में घरेलू ऋण इतना बड़ा क्यों हो गया है, इसके मुख्य कारण क्या हैं, और इसके संभावित प्रभाव क्या हो सकते हैं।
भारत में Domestic Debt की वृद्धि के मुख्य कारण
भारत में Domestic Debt की वृद्धि एक महत्वपूर्ण आर्थिक प्रवृत्ति बन गई है, जो वित्तीय और आर्थिक स्थिरता पर गहरा प्रभाव डाल रही है। यहां इस प्रवृत्ति के मुख्य कारणों की चर्चा की गई है:
1. उपभोक्ता ऋण और कार ऋण की वृद्धि
- उपभोक्ता ऋण: हाल के आंकड़ों के अनुसार, उपभोक्ता ऋण में तेजी से वृद्धि देखी जा रही है। उदाहरण के लिए, Apple ने भारत में 40% की सालाना वृद्धि दर्ज की है, जो उच्च गुणवत्ता वाले इलेक्ट्रॉनिक सामान की बढ़ती मांग को दर्शाता है। इस तरह की प्रवृत्ति अन्य क्षेत्रों में भी देखी जा रही है।
- कार ऋण: 72% कारें उधार पर खरीदी जाती हैं, और इन पर औसतन 90% ऋण होता है। कारों की औसत कीमत ₹11 लाख तक पहुँच गई है, जिससे यह संकेत मिलता है कि लोग अपनी वित्तीय क्षमताओं से अधिक खर्च कर रहे हैं।
2. उच्च घरेलू ऋण
- Domestic Debt का स्तर: भारत में घरेलू ऋण अब GDP का 39.1% तक पहुंच गया है, जो एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड है। यह दर्शाता है कि लोग अपनी वित्तीय स्थिति से परे जाकर उधार ले रहे हैं। अधिकांश ऋण असुरक्षित ऋण, जैसे व्यक्तिगत ऋण और क्रेडिट कार्ड ऋण में जा रहे हैं, जबकि संपत्ति निर्माण पर कम ध्यान दिया जा रहा है।
- बचत में कमी: वर्तमान में, भारत का नेट फाइनेंशियल सेविंग 5.1% तक घट गया है, जो एक ऐतिहासिक निम्नतम स्तर है। इसका मतलब है कि लोग उधार लेकर संपत्ति नहीं बना रहे हैं, बल्कि असुरक्षित ऋण ले रहे हैं।
3. क्रेडिट कार्ड और व्यक्तिगत ऋण का बढ़ता ट्रेंड
- क्रेडिट कार्ड ऋण: क्रेडिट कार्ड ऋण की सालाना वृद्धि 23.5% है।
- व्यक्तिगत ऋण: व्यक्तिगत ऋण की वृद्धि 28% तक पहुँच गई है।
- सोने के खिलाफ उधार: सोने के खिलाफ उधार की वृद्धि 18.5% है।
- कार ऋण: कार ऋण में 22% की वृद्धि हुई है।
ये आंकड़े दर्शाते हैं कि उपभोक्ता कर्ज ले रहे हैं लेकिन दीर्घकालिक संपत्तियों, जैसे कि रियल एस्टेट, में निवेश करने में संकोच कर रहे हैं।

4. जीवनशैली में बदलाव और असुरक्षित ऋण
- जीवनशैली में बदलाव: आजकल लोगों की खरीदारी की आदतें बदल गई हैं। उपभोक्ता संस्कृति के चलते, लोग अधिक सामान खरीदने के लिए ऋण लेने लगे हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स, अप्लायंसेज़, और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च बढ़ा है, जिससे ऋण की मांग बढ़ी है।
- असुरक्षित ऋण की वृद्धि: असुरक्षित ऋण, जैसे कि व्यक्तिगत लोन और क्रेडिट कार्ड लोन, में काफी वृद्धि हुई है। ICICI बैंक जैसे प्रमुख बैंकों ने इस क्षेत्र में वृद्धि देखी है। RBI ने असुरक्षित ऋणों पर जोखिम भार बढ़ाया है, लेकिन इसका असर सीमित रहा है, जिससे इन लोन की मांग बनी रही है।
5. आवासीय लोन और आर्थिक विकास
- आवासीय लोन: आवासीय लोन, यानी घर खरीदने के लिए लिया गया लोन, में भी वृद्धि हुई है, लेकिन यह वृद्धि गैर-आवासीय लोन की तुलना में धीमी है। उदाहरण के लिए, आवासीय ऋण की वृद्धि दर 12.2% है, जबकि गैर-आवासीय लोन की वृद्धि दर 18.3% है।
- आर्थिक विकास और आय: आर्थिक विकास और बढ़ती आय के बावजूद, लोग अधिक उधार लेने की प्रवृत्ति में हैं। इसका कारण उच्च उपभोक्ता मांग और कम बचत दर हो सकती है। लोग अपनी आय को अधिक खर्च करने की आदत में आ गए हैं, जिससे वे अधिक उधार ले रहे हैं।
6. उच्च उपभोक्ता ऋण के प्रभाव
- आर्थिक प्रभाव: उच्च उपभोक्ता ऋण का व्यापक प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। जब उपभोक्ता अत्यधिक कर्ज पर निर्भर होते हैं, विशेष रूप से गैर-आवश्यक वस्तुओं या लग्जरी सामान के लिए, तो यह अस्थिर वित्तीय प्रथाओं की ओर ले जाता है। ऋण के उच्च स्तर अक्सर ब्याज दरों में वृद्धि के साथ जुड़े होते हैं, जो घरेलू बजट को प्रभावित कर सकते हैं और संभावित रूप से आर्थिक मंदी का कारण बन सकते हैं।
7. भविष्य की दृष्टि और सिफारिशें
- विवेकपूर्ण वित्तीय प्रथाएं: उपभोक्ताओं को अपनी बचत में सुधार करने और असुरक्षित ऋण को कम करने पर ध्यान देना चाहिए। नीतिकारों को वित्तीय साक्षरता को बढ़ावा देने और ऋण की पहुँच को अधिक प्रभावी ढंग से विनियमित करने की दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता है।
भारत में कर्ज़ में सामाजिक और आर्थिक प्रभाव
1. वित्तीय अस्थिरता
जब लोग ज्यादा कर्ज़ लेते हैं और बचत कम करते हैं, तो इससे वित्तीय अस्थिरता का खतरा बढ़ जाता है। इसका मतलब यह है कि लोग अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा कर्ज़ चुकाने में खर्च कर देते हैं। इस स्थिति में, उनका दीर्घकालिक वित्तीय सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है। अगर किसी परिवार की बचत कम है और वे अधिक कर्ज़ में हैं, तो भविष्य में किसी आपातकालीन स्थिति या वित्तीय संकट से निपटना मुश्किल हो सकता है।
2. उच्च कर्ज़ सेवा अनुपात
भारत में कर्ज़ सेवा अनुपात (Debt Service Ratio – DSR) लगभग 12 प्रतिशत है, जो नॉर्डिक देशों के बराबर है। इसका मतलब है कि भारतीय परिवारों को अपनी कुल आय का एक बड़ा हिस्सा कर्ज़ चुकाने में खर्च करना पड़ता है। भारत में कर्ज़ की दरें अधिक हैं और कर्ज़ की अवधि भी कम होती है, जिससे यह अनुपात उच्च रहता है। इसका असर यह है कि लोग अधिक कर्ज़ चुकाने के लिए अधिक पैसे खर्च करते हैं, जिससे उनके पास अन्य खर्चों के लिए कम पैसे बचते हैं।
3. सरकारी दृष्टिकोण और भविष्य की दिशा
भारतीय वित्त मंत्रालय ने हाल ही में कहा कि बढ़ते कर्ज़ को अस्थायी मानना चाहिए। मंत्रालय का कहना है कि लोग कम ब्याज दरों का लाभ उठा रहे हैं और भविष्य में बढ़ती आय और रोजगार की उम्मीद के साथ कर्ज़ ले रहे हैं। इस दृष्टिकोण से, बढ़ते कर्ज़ को एक संभावित आर्थिक संकट का संकेत नहीं माना जा रहा है। बल्कि, यह भविष्य के बेहतर आर्थिक अवसरों को दर्शाता है।
4. चिंता और समाधान
बीबीसी के रिपोर्ट के मुताबिक, अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री जिको दासगुप्ता और श्रीनिवास राघवेंद्र मानते हैं कि बचत में गिरावट कर्ज़ चुकाने के लिए चिंताओं को बढ़ा रही है। इसके अतिरिक्त, अर्थशास्त्री रथिन रॉय ने कर्ज़ पर बढ़ती निर्भरता को लेकर चिंता जताई है, खासकर उन देशों में जहां प्रति व्यक्ति आय कम है।
मोतीलाल ओसवाल के अर्थशास्त्री गुप्ता और लढ़ा का कहना है कि वर्तमान में कर्ज़ की उच्च दर भारत की वित्तीय स्थिरता को तुरंत खतरे में नहीं डालती, लेकिन यदि यह प्रवृत्ति जारी रहती है, तो भविष्य में समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
बिजनेस कंसल्टेंट रमा बिजापुरकर ने अपनी किताब “लिलिपुट लैंड” में लिखा है कि भारत के उपभोक्ता एक ऐसी स्थिति में हैं जहां वे बेहतर जीवन की उम्मीद कर रहे हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें सार्वजनिक सेवाओं की कमी, कम आय, और अस्थिरता जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि भारत में बढ़ते कर्ज़ और घटती बचत की स्थिति को समझना और सही तरीके से प्रबंधित करना महत्वपूर्ण है। इसके लिए उपभोक्ताओं को विवेकपूर्ण वित्तीय प्रथाओं को अपनाना होगा और सरकार को इस स्थिति की निगरानी करनी होगी ताकि भविष्य में आर्थिक स्थिरता बनी रहे।
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